हमारे पास ठेके वाली दारू है, जबड़े से बियर की बोतल उखाड़ने वाला ओपनर है, एक कश बीड़ी और एक कश सिगरेट खींचने वाला फेफड़ा है
एक ताज़ा अहसास
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प्रिय कमल जी,
पिछले दिनों दिल्ली के एक फ़ाइव स्टार होटल में नाइटक्लब की ओपनिंग में गया था। साथ में हिसार वाले सेठी भी थे। वहां टीना, मीना, रीना, खुराना, भाटिया, वालिया जैसे बहुत सारे अनाम किरदार थे। इनकी जिंदगी के अंदर झांकने की कोशिश की। अनुभव की आँखों ने वहां घना अंधेरा देखा। ये लोग बाहर से चाहे जितने खुश दिखते हों, भीतर मरघटी सन्नाटा पसरा था। दरअसल, ऐसे लोग महानगरीय जिंदगी की त्रासदियों के चंद नमूनों में से हैं। बाहर लकदक, तड़क-भड़क, रंग-रोशनी और भीतर तन्हाइयां, जड़ों से कटे हुए, रिश्तों से भटके हुए और मन ही मन डरे हुए लोग। ये न तो दिल खोलकर हंस सकते हैं, न ही जार-जार रो पाते हैं...सर्कस के जोकर की तरह। अंदर की इसी बेचैनी, इसी वीराने और अवसाद के मलबे से बाहर निकलने के लिए महानगरों का यह दयनीय तबका दौलत के बूते नाइटलाइफ में रेत की मुट्ठियां बांधने की कोशिशें करता है। भला रेत की मुट्ठी कैसे बंधेगी! रेत फिसलता जाता है, मुट्ठी ढीली पड़ती जाती है और फिर हथेली पर चिपके रेत के चंद जर्रों पर हाथ मलना पड़ता है। पैसों के पहियों के सहारे सरकने वाली मद्धिम रोशनी वाली ये रातें रेत के इन्हीं जर्रों की मानिंद हैं। पौ फटने से पहले नाइटक्लबों से बाहर निकलते पार्टीबाजों को देखो तो ये हाथ ही मलते ही नज़र आएंगे। बनावटी हंसी और खोखले रिश्तों को ओढ़कर विदेशी शराब, कोकीन और ड्रग्स के बूते इन सिसकती रातों को जीने वाले किरदारों के हाथ कुछ लगता नहीं है। ख़ाली हाथ ही लौटते हैं पार्टी से...हाथ मलते हुए।
पार्टी से लौटा तो दिमाग़ में हॉलीवुड की ऑलटाइम ग्रेट मूवी ‘सिटीज़न केन’ के नायक की कहानी उभर आई। फ़िल्म का नायक बेशुमार दौलत का स्वामी है। वह ख़ूबसूरत व शोहरतमंद है, लेकिन उसने पूरी बनावटी ज़िंदगी जी, रिश्तों और जड़ों से कटकर। अपने अंतिम समय में आँसुओं के बीच वह छोटी-सी उस स्लेज गाड़ी (बर्फ़ पर चलने वाला वाहन) को याद करता है, जो उसे बचपन में किसी ने गिफ़्ट में दी थी। मतलब कि खोखली ज़िंदगी से उत्पन्न बेचैनी को मिटाने के लिए वह बाल स्मृतियों के सहारे उस स्लेज में कुछ सुकून तलाशता है। एक इच्छा हुई कि किसी ऐसे दौलत शोहरतमंद इंसान का उसके मरते समय साक्षात्कार लूं, जिसने कृत्रिम ज़िंदगी बसर की हो। फिर सोचता हूं कि आखिर वह ग़रीब बोलेगा क्या? उससे अमीर तो हमलोग हैं। हमारी जिंदगी में परिवार है, रिश्ते-नाते हैं, यार-दोस्त हैं, जड़-ज़मीन है, काम है धाम है, बॉस हैं, अधीनस्थ हैं, लफड़ा है, झगड़ा है, साज़िशें है, ऐयारी है, दोस्त व दुश्मन है, मुखालिफ व तरफदार हैं, खेत व खलियान हैं, पैंठ व बाज़ार हैं, महल व झोंपड़े हैं, मिट्टी व पसीने की महक है। इन पार्टीबाजों के पास क्या है?
हमारे पास ठेके वाली दारू है, जबड़े से बियर की बोतल उखाड़ने वाला ओपनर है, एक कश बीड़ी और एक कश सिगरेट खींचने वाला फेफड़ा है, पेड़ा और पिज्जा का मिलाजुला निवाला चबाने वाली जीभ है, एक ही थाली में दस किस्म के व्यंजन को अंगुलियों से मिलाकर खाने का स्वाद है, सूखी रोटी के साथ कुछ नहीं तो दो मुट्ठी नमकीन लेकर भी पेट भरने की तृप्ति है, फटे मौजे, चड्डी और बनियान को ढंकने के लिए वक्ती तौर पर हमारे पास रेमंड्स का सूट और ब्रांडेड जूते भी हैं, अपनी नहीं तो किराये की होंडा-मारुति है.......ये हैं, वो हैं, और पता क्या-क्या और कितने है और बेशुमार हैं। इन पार्टीबाज निहंगों के पास क्या है?
मनोज झा
संपादकीय प्रभारी, दैनिक जागरण, दिल्ली-एनसीआर
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