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Showing posts from February, 2018

नाइट क्लब

 हमारे पास ठेके वाली दारू है, जबड़े से बियर की बोतल उखाड़ने वाला ओपनर है, एक कश बीड़ी और एक कश सिगरेट खींचने वाला फेफड़ा है एक ताज़ा अहसास ——————— प्रिय कमल जी, पिछले दिनों दिल्ली के एक फ़ाइव स्टार होटल में नाइटक्लब की ओपनिंग में गया था। साथ में हिसार वाले सेठी भी थे। वहां टीना, मीना, रीना, खुराना, भाटिया, वालिया जैसे बहुत सारे अनाम किरदार थे। इनकी जिंदगी के अंदर झांकने की कोशिश की। अनुभव की आँखों ने वहां घना अंधेरा देखा। ये लोग बाहर से चाहे जितने खुश दिखते हों, भीतर मरघटी सन्नाटा पसरा था। दरअसल, ऐसे लोग महानगरीय जिंदगी की त्रासदियों के चंद नमूनों में से हैं। बाहर लकदक, तड़क-भड़क, रंग-रोशनी और भीतर तन्हाइयां, जड़ों से कटे हुए, रिश्तों से भटके हुए और मन ही मन डरे हुए लोग। ये न तो दिल खोलकर हंस सकते हैं, न ही जार-जार रो पाते हैं...सर्कस के जोकर की तरह। अंदर की इसी बेचैनी, इसी वीराने और अवसाद के मलबे से बाहर निकलने के लिए महानगरों का यह दयनीय तबका दौलत के बूते नाइटलाइफ में रेत की मुट्ठियां बांधने की कोशिशें करता है। भला रेत की मुट्ठी कैसे बंधेगी! रेत फिसलता जाता है, मुट्ठी ढील