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Showing posts from 2015

आजकल के स्मार्ट प्रधान

उत्तर प्रदेश प्रधानी चुनाव के मतगणना के एक दिन पहले मैं अपने मित्र के घर गया। भाभी जी से पता चला वो एक महीने से गांव पर हैं। उसकी मां प्रधान पद की प्रत्याशी थीं और रिजल्ट का इंतजार था। भाभी बता रहीं थीं कि इस चुनाव में मेरा मित्र करीब दस लाख फूंक चुका है। चाय पर चर्चा शुरू हुई तो भाभी जी के माथे पर रिजल्ट को लेकर्र ंचता की लकीरें साफ दिख रहीं थीं। लेकिन उनकी आंखों में उनके महानगर में अपना एक घर बनाने के सपना पूरा होता नजर आ रहा था। बताने लगीं कि अगर उनकी सास चुनाव जीत जातीं हैं तो दस लाख रुपया पांच साल में कैसे दो करोड़ हो जाएंगे। भाभी जी जैसे हजारों घरों में ऐसे ही सपने पल रहे होंगे। रविवार को उप्र के गांवों की सरकार चुन ली गई। 58 हजार नौ सौ नौ नवनिर्वाचित प्रधानों के घरों में उत्सव का माहौल है। गांव स्मार्ट हो या न हो पर प्रधान जी स्मार्ट हो गए हैं। अब चुनाव में खर्च किए गए पैसे के रिटर्न के लिए प्लानिंग भी कर रहे होंगे। दस लाख रुपये तो केवल मेरे मित्र ने खर्च किए हैं। अगर मान लें कि हर न्याय पंचायत में सभी प्रत्याशी मिलकर सिर्फ दो लाख रुपये ही खर्च किए होंगे तो प्रधानी के चुनाव मे

चतुर्वेदी पीछा नहीं छोड़ रहे...

एक बार फिर ‘वक़्त है एक ब्रेक का ’ मेरे हाथ में है. 8 साल में इस किताब को मैं सातवीं बार खरीदा हूं . पहली दो कहानियाँ ही अभी पढ़ पाया. इन दोनों कहानियों ने मुझे 10 साल पीछे जाने पर मजबूर कर दिया. बात उन दिनों की है जब मैं इत्तेफ़ाक से मीडिया में आ गया . वो भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में . इंडिया टीवी और जी न्यूज़ के स्ट्रिंगर का ‘रिपोर्टर’ बनकर गोरखपुर से बस्ती, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज और कुशीनगर की सड़कें नाप चुका था . ढाई साल बेगारी में लेकिन मस्त गुजरे. सहारा समय वीकली से नाम और पहचान मिली. मेहनताना भी मिला. सहारा समय टीवी में आया तो टीवी की शब्दावलियों से परिचित नहीं था. बहुत तेजी से बाइट, एंकर, स्क्रिप्ट, वीओ जैसे शब्द कागज पर उतरने लगे थे.लेकिन टीवी की दुनिया की असली कहानी मिली ‘हंस’ के जनवरी 07 के अंक में. हालांकि ब्यूरो में काम करते हुए  सुधीर सुधाकर  की कहानी ‘बिस्फोटक’ ही लोकल से कनेक्ट हुई. इस साल हंस का यह अंक मुझे तीन बार खरीदना पड़ा. लेकिन दो तीन कहानियों के आगे मैं नहीं बढ़ पाया . मीडिया से जुड़े साथी इसे मेरे पास रहने नहीं दिए. सहारा समय में काम करते हुए तीन साल गुजर गए. उस सम

डिजिटल इंडिया में कहाँ होंगे अख़बार

यही कोई 7 या 8 साल पहले की बात है।गोरखपुर प्रेस क्लब में एक सेमीनार का विषय था ' मीडिया की चुनौतियाँ और स्वरुप' । वक्ता थे जागरण इंस्टिट्यूट ऑफ़ मॉस मीडिया एंड कम्युनिकेशन के डायरेक्टर श्री अजय उपाद्ध्याय।उस समय जब अजय जी ने ये कहा था कि आनेवाले समय में अखबारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी ई मीडिया।पाठक तय करेगा कि उसे क्या और कितना पढ़ना है। मेरी पत्रकारिता  की अभी शुरुआत थी। आईटी से जुड़ा होने के कारण स्थिति की गंभीरता समझ में आने लगी थी। लेकिन वरिष्ठों ने डपट दिया। कहने लगे बुढाऊ सठिया गए हैं। अखबार कभी बंद नहीं होंगे।अख़बार भारतीयों के लिए टूथपेस्ट जैसी आदत है ।आज 8 साल बाद भी लगातार अख़बारों के नए एडिशन लांच होते देख तो यही लगता है कि अजय जी गलत थे। पर अजय जी की बात में दम था। इंटरनेट की पहुँच जैसे ही आम लोगों तक हुई, अखबारों का स्वरूप बदलने लगे। खबरों का टेस्ट बदलने लगा । फ्रंट पेज पर लोकल खबरें आने लगीं। अस्तित्व बचाने की ये अभी शुरुआत है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव का ये असर तब है जब मोबाइल इन्टरनेट की पहुँच कस्बों तक है। डिजिटल इंडिया का अगर सपना साकार हो गया तो छोटी से छो