उत्तर प्रदेश प्रधानी चुनाव के मतगणना के एक दिन पहले मैं अपने मित्र के घर गया। भाभी जी से पता चला वो एक महीने से गांव पर हैं। उसकी मां प्रधान पद की प्रत्याशी थीं और रिजल्ट का इंतजार था। भाभी बता रहीं थीं कि इस चुनाव में मेरा मित्र करीब दस लाख फूंक चुका है। चाय पर चर्चा शुरू हुई तो भाभी जी के माथे पर रिजल्ट को लेकर्र ंचता की लकीरें साफ दिख रहीं थीं। लेकिन उनकी आंखों में उनके महानगर में अपना एक घर बनाने के सपना पूरा होता नजर आ रहा था। बताने लगीं कि अगर उनकी सास चुनाव जीत जातीं हैं तो दस लाख रुपया पांच साल में कैसे दो करोड़ हो जाएंगे।
भाभी जी जैसे हजारों घरों में ऐसे ही सपने पल रहे होंगे। रविवार को उप्र के गांवों की सरकार चुन ली गई। 58 हजार नौ सौ नौ नवनिर्वाचित प्रधानों के घरों में उत्सव का माहौल है। गांव स्मार्ट हो या न हो पर प्रधान जी स्मार्ट हो गए हैं। अब चुनाव में खर्च किए गए पैसे के रिटर्न के लिए प्लानिंग भी कर रहे होंगे। दस लाख रुपये तो केवल मेरे मित्र ने खर्च किए हैं। अगर मान लें कि हर न्याय पंचायत में सभी प्रत्याशी मिलकर सिर्फ दो लाख रुपये ही खर्च किए होंगे तो प्रधानी के चुनाव में लगभग छह सौ करोड़ रुपये फुंक चुके हैं। अब बारी है इस बड़ी पूंजी के सूद समेत पांच साल में सौ गुना करने की। जाहिर है ईमानदारी से तो ये नहीं होगा। किसी न किसी तरह से तिकड़म लगाना होगा। इसके लिए सोने के अंडे देने वाली मनरेगा की मुर्गी का चाहे पेट फाड़ना पड़े या सधवा को विधवा पेंशन दिलानी पड़े, प्रधान जी सब करेंगे।
मेरे एक मित्र के भाई साहब प्रधान थे। मित्र ने बताया कि कैसे कमाई होती है। उसकी मानें तो इंदिरा आवास पास कराने के प्रति आवास 7500 रुपये पहले ही ऊपर पहुंचाना होता है। हालांकि 12000 रुपये ये लोग पहले ही लाभार्थी से ऐंठ लेते थे। विधवा पेंशन उसी को मिलता था जिसके घर का किसी नकिसी व्यक्ति का मनरेगा जॉब कार्ड बना रहता था। मस्टररोल के सहारे जैसे ही रकम फर्जी मजदूर के खाते में आती थी, प्रधान जी के लोग बैंक पहुंच कर उससे पैसे ले लेते थे। तरीके बहुत हैं। लिखना शुरू करें तो कई पन्नें रंग जाएं।
सरकारी योजनाओं की रकम सीधे ग्राम पंचायतों में पहुंचने से अब सरपंची का चुनाव मूंछों की लड़ाई वाली नहीं रही। मनरेगा से लेकर स्वच्छ शैचालयों जैसे कार्य्रकमों का पैसा सीधे गांवों तक पहुंच रहे हैं। इस वित्तीय वर्ष में विभिन्न मदों से 15757 करोड़ रुपये गांवों तक पहुंचेंगे। अगर इस पूरी रकम को सभी ग्राम पंचायतों में बराबर बांट दिया जाय तो हर साल करीब करीब तीस लाख रुपये एक गांव को मिलेंगे। सरकारी कमीशन और काम पर लागत निकाल लें तो नौ लाख रुपये हर साल एक प्रधान ईमानदारी से कमायेगा। इसी पैसे ने प्रधानी के चुनाव को महंगा बना दिया है।
प्रधानी के चुनाव को और ज्यादा खर्चिला होने की और भी वजहें हैं। गांव के मतदाता अब उतने भोले नहीं रहे। अब लाल नोट के आगे सुनते ही नहीं। सौ रुपये की साड़ी पाकर 10 वोट दिलवाने वाली सुनरी की बहु अब पांच सौ का फ्राक सूट मांगती है। लगेदन चाचा जो पाउच पीकर मस्त हो जाते थे अब उन्हें अंग्रेजी चाहिए। दो बोटी गोश्त पर जिनके घर भर का वोट एक जगह गिरता था अब उसे पूरा मुर्गा चाहिए, ऊपर से तेल और मसाला भी। इस पैरा में लिखे ये नाम भले ही काल्पनिक हैं लेकिन ये सच के बहुत करीब है।
प्रधानों की कमाई पर अगर यकीन न हो तो अपने गांव के मुखिया की पिछले पांच साल की ग्रोथरेट देखिए। क्या सीए, क्या एमबीए। इस ग्रोथ के आगे सब फेल। मेरे कई दोस्त मल्टी नेशनल कंपनियों में आईटी प्रोफेशनल हैं। चार से छह लाख सलाना पैकेज से शुरू हुई नौकरी में जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद आज दस साल में 12 लाख तक ही पहुंच पाए। एमबीए, एमसीए, बीटेक, एमटेक के मेधावियों को शुरुआात में मिलने वाले पैकेज पांच साल में होने वाली कमाई के आगे बहुत कम हैं। बड़ी संख्या में ऐसे युवा गांव की राजनीति में कदम रख चुके हैं। इनमें से अधिकांश पांच साल की प्रधानी में अपनी 30 साल की बेरोजगारी दूर करने के लिए आए हैं।
दिल्ली सरकार को देखिए। एक चुनाव लड़कर आए माननीय लोग करीब 30 लाख सलाना पैकेज उठाने लगे। इसीलिए कहता हूं आओ राजनीति करो। राजनीति में अपना कैरियर बनाओ। खुद चमको और अपने गांव गिरांव को चमकाओ। स्मार्ट बनो और गांव को भी स्मार्ट बनाओ।
भाभी जी जैसे हजारों घरों में ऐसे ही सपने पल रहे होंगे। रविवार को उप्र के गांवों की सरकार चुन ली गई। 58 हजार नौ सौ नौ नवनिर्वाचित प्रधानों के घरों में उत्सव का माहौल है। गांव स्मार्ट हो या न हो पर प्रधान जी स्मार्ट हो गए हैं। अब चुनाव में खर्च किए गए पैसे के रिटर्न के लिए प्लानिंग भी कर रहे होंगे। दस लाख रुपये तो केवल मेरे मित्र ने खर्च किए हैं। अगर मान लें कि हर न्याय पंचायत में सभी प्रत्याशी मिलकर सिर्फ दो लाख रुपये ही खर्च किए होंगे तो प्रधानी के चुनाव में लगभग छह सौ करोड़ रुपये फुंक चुके हैं। अब बारी है इस बड़ी पूंजी के सूद समेत पांच साल में सौ गुना करने की। जाहिर है ईमानदारी से तो ये नहीं होगा। किसी न किसी तरह से तिकड़म लगाना होगा। इसके लिए सोने के अंडे देने वाली मनरेगा की मुर्गी का चाहे पेट फाड़ना पड़े या सधवा को विधवा पेंशन दिलानी पड़े, प्रधान जी सब करेंगे।
मेरे एक मित्र के भाई साहब प्रधान थे। मित्र ने बताया कि कैसे कमाई होती है। उसकी मानें तो इंदिरा आवास पास कराने के प्रति आवास 7500 रुपये पहले ही ऊपर पहुंचाना होता है। हालांकि 12000 रुपये ये लोग पहले ही लाभार्थी से ऐंठ लेते थे। विधवा पेंशन उसी को मिलता था जिसके घर का किसी नकिसी व्यक्ति का मनरेगा जॉब कार्ड बना रहता था। मस्टररोल के सहारे जैसे ही रकम फर्जी मजदूर के खाते में आती थी, प्रधान जी के लोग बैंक पहुंच कर उससे पैसे ले लेते थे। तरीके बहुत हैं। लिखना शुरू करें तो कई पन्नें रंग जाएं।
सरकारी योजनाओं की रकम सीधे ग्राम पंचायतों में पहुंचने से अब सरपंची का चुनाव मूंछों की लड़ाई वाली नहीं रही। मनरेगा से लेकर स्वच्छ शैचालयों जैसे कार्य्रकमों का पैसा सीधे गांवों तक पहुंच रहे हैं। इस वित्तीय वर्ष में विभिन्न मदों से 15757 करोड़ रुपये गांवों तक पहुंचेंगे। अगर इस पूरी रकम को सभी ग्राम पंचायतों में बराबर बांट दिया जाय तो हर साल करीब करीब तीस लाख रुपये एक गांव को मिलेंगे। सरकारी कमीशन और काम पर लागत निकाल लें तो नौ लाख रुपये हर साल एक प्रधान ईमानदारी से कमायेगा। इसी पैसे ने प्रधानी के चुनाव को महंगा बना दिया है।
प्रधानी के चुनाव को और ज्यादा खर्चिला होने की और भी वजहें हैं। गांव के मतदाता अब उतने भोले नहीं रहे। अब लाल नोट के आगे सुनते ही नहीं। सौ रुपये की साड़ी पाकर 10 वोट दिलवाने वाली सुनरी की बहु अब पांच सौ का फ्राक सूट मांगती है। लगेदन चाचा जो पाउच पीकर मस्त हो जाते थे अब उन्हें अंग्रेजी चाहिए। दो बोटी गोश्त पर जिनके घर भर का वोट एक जगह गिरता था अब उसे पूरा मुर्गा चाहिए, ऊपर से तेल और मसाला भी। इस पैरा में लिखे ये नाम भले ही काल्पनिक हैं लेकिन ये सच के बहुत करीब है।
प्रधानों की कमाई पर अगर यकीन न हो तो अपने गांव के मुखिया की पिछले पांच साल की ग्रोथरेट देखिए। क्या सीए, क्या एमबीए। इस ग्रोथ के आगे सब फेल। मेरे कई दोस्त मल्टी नेशनल कंपनियों में आईटी प्रोफेशनल हैं। चार से छह लाख सलाना पैकेज से शुरू हुई नौकरी में जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद आज दस साल में 12 लाख तक ही पहुंच पाए। एमबीए, एमसीए, बीटेक, एमटेक के मेधावियों को शुरुआात में मिलने वाले पैकेज पांच साल में होने वाली कमाई के आगे बहुत कम हैं। बड़ी संख्या में ऐसे युवा गांव की राजनीति में कदम रख चुके हैं। इनमें से अधिकांश पांच साल की प्रधानी में अपनी 30 साल की बेरोजगारी दूर करने के लिए आए हैं।
दिल्ली सरकार को देखिए। एक चुनाव लड़कर आए माननीय लोग करीब 30 लाख सलाना पैकेज उठाने लगे। इसीलिए कहता हूं आओ राजनीति करो। राजनीति में अपना कैरियर बनाओ। खुद चमको और अपने गांव गिरांव को चमकाओ। स्मार्ट बनो और गांव को भी स्मार्ट बनाओ।
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