यही कोई 7 या 8 साल पहले की बात है।गोरखपुर प्रेस क्लब में एक सेमीनार का विषय था ' मीडिया की चुनौतियाँ और स्वरुप' । वक्ता थे जागरण इंस्टिट्यूट ऑफ़ मॉस मीडिया एंड कम्युनिकेशन के डायरेक्टर श्री अजय उपाद्ध्याय।उस समय जब अजय जी ने ये कहा था कि आनेवाले समय में अखबारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी ई मीडिया।पाठक तय करेगा कि उसे क्या और कितना पढ़ना है।
मेरी पत्रकारिता की अभी शुरुआत थी। आईटी से जुड़ा होने के कारण स्थिति की गंभीरता समझ में आने लगी थी। लेकिन वरिष्ठों ने डपट दिया। कहने लगे बुढाऊ सठिया गए हैं। अखबार कभी बंद नहीं होंगे।अख़बार भारतीयों के लिए टूथपेस्ट जैसी आदत है ।आज 8 साल बाद भी लगातार अख़बारों के नए एडिशन लांच होते देख तो यही लगता है कि अजय जी गलत थे।
पर अजय जी की बात में दम था। इंटरनेट की पहुँच जैसे ही आम लोगों तक हुई, अखबारों का स्वरूप बदलने लगे। खबरों का टेस्ट बदलने लगा । फ्रंट पेज पर लोकल खबरें आने लगीं। अस्तित्व बचाने की ये अभी शुरुआत है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव का ये असर तब है जब मोबाइल इन्टरनेट की पहुँच कस्बों तक है। डिजिटल इंडिया का अगर सपना साकार हो गया तो छोटी से छोटी घटना भी सोशल मीडिया पर ब्रेक होगी।लोकल खबरों और भारतीयों की अख़बार पढ़ने की आदत के दम पर अखबार कब तक चलेंगे। लोकल ख़बरें मोबाइल पर मिलेंगी। आदत तो बुजुर्गों की नहीं बदली जा सकती पर e-smart किशोरों को अखबार पढ़ाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। दातून को जैसे टूथपेस्ट ने पूरी तरह रिप्लेस कर दिया है वैसे ही अब हमारी बारी है। सर्वे में हर साल पाठकों की संख्या के आधार पर अख़बार नंबर गेम में मस्त हैं। हर अखबार कहता है कि उसने इतने नए पाठक जोड़े। मगर किसके। जो पहले से किसी और अखबार के थे।
मेरी पत्रकारिता की अभी शुरुआत थी। आईटी से जुड़ा होने के कारण स्थिति की गंभीरता समझ में आने लगी थी। लेकिन वरिष्ठों ने डपट दिया। कहने लगे बुढाऊ सठिया गए हैं। अखबार कभी बंद नहीं होंगे।अख़बार भारतीयों के लिए टूथपेस्ट जैसी आदत है ।आज 8 साल बाद भी लगातार अख़बारों के नए एडिशन लांच होते देख तो यही लगता है कि अजय जी गलत थे।
पर अजय जी की बात में दम था। इंटरनेट की पहुँच जैसे ही आम लोगों तक हुई, अखबारों का स्वरूप बदलने लगे। खबरों का टेस्ट बदलने लगा । फ्रंट पेज पर लोकल खबरें आने लगीं। अस्तित्व बचाने की ये अभी शुरुआत है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव का ये असर तब है जब मोबाइल इन्टरनेट की पहुँच कस्बों तक है। डिजिटल इंडिया का अगर सपना साकार हो गया तो छोटी से छोटी घटना भी सोशल मीडिया पर ब्रेक होगी।लोकल खबरों और भारतीयों की अख़बार पढ़ने की आदत के दम पर अखबार कब तक चलेंगे। लोकल ख़बरें मोबाइल पर मिलेंगी। आदत तो बुजुर्गों की नहीं बदली जा सकती पर e-smart किशोरों को अखबार पढ़ाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। दातून को जैसे टूथपेस्ट ने पूरी तरह रिप्लेस कर दिया है वैसे ही अब हमारी बारी है। सर्वे में हर साल पाठकों की संख्या के आधार पर अख़बार नंबर गेम में मस्त हैं। हर अखबार कहता है कि उसने इतने नए पाठक जोड़े। मगर किसके। जो पहले से किसी और अखबार के थे।
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