एक बार फिर ‘वक़्त है एक ब्रेक का ’ मेरे हाथ में है. 8 साल में इस किताब को मैं सातवीं बार खरीदा हूं . पहली दो कहानियाँ ही अभी पढ़ पाया. इन दोनों कहानियों ने मुझे 10 साल पीछे जाने पर मजबूर कर दिया.
बात उन दिनों की है जब मैं इत्तेफ़ाक से मीडिया में आ गया . वो भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में . इंडिया टीवी और जी न्यूज़ के स्ट्रिंगर का ‘रिपोर्टर’ बनकर गोरखपुर से बस्ती, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज और कुशीनगर की सड़कें नाप चुका था . ढाई साल बेगारी में लेकिन मस्त गुजरे. सहारा समय वीकली से नाम और पहचान मिली. मेहनताना भी मिला. सहारा समय टीवी में आया तो टीवी की शब्दावलियों से परिचित नहीं था.
बहुत तेजी से बाइट, एंकर, स्क्रिप्ट, वीओ जैसे शब्द कागज पर उतरने लगे थे.लेकिन टीवी की दुनिया की असली कहानी मिली ‘हंस’ के जनवरी 07 के अंक में. हालांकि ब्यूरो में काम करते हुए सुधीर सुधाकर की कहानी ‘बिस्फोटक’ ही लोकल से कनेक्ट हुई. इस साल हंस का यह अंक मुझे तीन बार खरीदना पड़ा. लेकिन दो तीन कहानियों के आगे मैं नहीं बढ़ पाया . मीडिया से जुड़े साथी इसे मेरे पास रहने नहीं दिए. सहारा समय में काम करते हुए तीन साल गुजर गए. उस समय स्ट्रिंगर के लिए सहारा से अच्छा कोई संस्थान नहीं था. हर महीने मेरी इतनी स्टोरी चलती थी कि आज हिंदुस्तान में सीनियर रिपोर्टर होने के बावजूद मेरी उतनी सैलरी नहीं है. महीने के 24 से 30 हज़ार कम नहीं होते. लेकिन इस किताब ने मेरी सोच बदल दी. मुझे हर हाल में staffer बनना था.
भविष्य को संवारने के लिए वर्तमान से संघर्ष करते हुए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर चला आया. वाच न्यूज़ में बतौर एसोसिएट प्रोड्यूसर काम मिला. डेस्क का काम भी आ गया. इसी बीच हंस का वह अंक ‘वक़्त है एक ब्रेक का ’ के रूप में बाज़ार में आ चुका था. पहली कहानी ‘डर लागे अपनी उमरिया से ’ के सारे पात्र वाच न्यूज़ के न्यूज़ रूम में जिंदा हो चुके थे .वाचस्पति, वाल्मीकि , केडी सब यंही मिल गए. कुछ महीने ही बीते होंगे अजीत अंजुम जी की कहानी ‘फ्राइडे’ के पात्र भी फुफकारने लगे. ‘सीईओ’ और ‘प्रीतेश’ अलग हो गए . चैनल बंद हो गया. ‘अजय भटनागर’ मीडिया को छोड़ अपने गांव में आजकल कहीं खेती कर रहा होगा. समय के साथ चलने वाला ‘समरजीत ’ भी किसी मीडिया हाउस के मालिक को खुश कर रहा होगा. लेकिन टीवी से अख़बार में आने के बाद भी ‘ वाचस्पति’, ‘वाल्मीकि’, ‘निलेश’,रतन और चतुर्वेदी पीछा नहीं छोड़ रहे.
बात उन दिनों की है जब मैं इत्तेफ़ाक से मीडिया में आ गया . वो भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में . इंडिया टीवी और जी न्यूज़ के स्ट्रिंगर का ‘रिपोर्टर’ बनकर गोरखपुर से बस्ती, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज और कुशीनगर की सड़कें नाप चुका था . ढाई साल बेगारी में लेकिन मस्त गुजरे. सहारा समय वीकली से नाम और पहचान मिली. मेहनताना भी मिला. सहारा समय टीवी में आया तो टीवी की शब्दावलियों से परिचित नहीं था.
बहुत तेजी से बाइट, एंकर, स्क्रिप्ट, वीओ जैसे शब्द कागज पर उतरने लगे थे.लेकिन टीवी की दुनिया की असली कहानी मिली ‘हंस’ के जनवरी 07 के अंक में. हालांकि ब्यूरो में काम करते हुए सुधीर सुधाकर की कहानी ‘बिस्फोटक’ ही लोकल से कनेक्ट हुई. इस साल हंस का यह अंक मुझे तीन बार खरीदना पड़ा. लेकिन दो तीन कहानियों के आगे मैं नहीं बढ़ पाया . मीडिया से जुड़े साथी इसे मेरे पास रहने नहीं दिए. सहारा समय में काम करते हुए तीन साल गुजर गए. उस समय स्ट्रिंगर के लिए सहारा से अच्छा कोई संस्थान नहीं था. हर महीने मेरी इतनी स्टोरी चलती थी कि आज हिंदुस्तान में सीनियर रिपोर्टर होने के बावजूद मेरी उतनी सैलरी नहीं है. महीने के 24 से 30 हज़ार कम नहीं होते. लेकिन इस किताब ने मेरी सोच बदल दी. मुझे हर हाल में staffer बनना था.
भविष्य को संवारने के लिए वर्तमान से संघर्ष करते हुए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर चला आया. वाच न्यूज़ में बतौर एसोसिएट प्रोड्यूसर काम मिला. डेस्क का काम भी आ गया. इसी बीच हंस का वह अंक ‘वक़्त है एक ब्रेक का ’ के रूप में बाज़ार में आ चुका था. पहली कहानी ‘डर लागे अपनी उमरिया से ’ के सारे पात्र वाच न्यूज़ के न्यूज़ रूम में जिंदा हो चुके थे .वाचस्पति, वाल्मीकि , केडी सब यंही मिल गए. कुछ महीने ही बीते होंगे अजीत अंजुम जी की कहानी ‘फ्राइडे’ के पात्र भी फुफकारने लगे. ‘सीईओ’ और ‘प्रीतेश’ अलग हो गए . चैनल बंद हो गया. ‘अजय भटनागर’ मीडिया को छोड़ अपने गांव में आजकल कहीं खेती कर रहा होगा. समय के साथ चलने वाला ‘समरजीत ’ भी किसी मीडिया हाउस के मालिक को खुश कर रहा होगा. लेकिन टीवी से अख़बार में आने के बाद भी ‘ वाचस्पति’, ‘वाल्मीकि’, ‘निलेश’,रतन और चतुर्वेदी पीछा नहीं छोड़ रहे.
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यह सफर नही आसां बस इतना समझ लीजें..
यह सफर नही आसां बस इतना समझ लीजें..