वही हुआ जिसका मुझे डर था। मेरे लिए भी एक चौंकाने वाली ख़बर थी। हरियाणा के फ़रीदाबाद और रेवाड़ी से ख़बर आइ थी कि कई महिलाओं की चोटी कट गई। कौन काट रहा है, क्यों काट रहा है? इसका जवाब न तो प्रशासन के पास था और न ही रिपोर्टर के पास। ख़बर सनसनीख़ेज़ थी अतः इसे पहले पन्ने पर स्थान देना पड़ा। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा कि पैनिक क्रीएट न हो। ख़बर डीप सिंगल लगाई। दो दिन बाद फिर दिल्ली से ऐसी ही घटना सामने आइ। अगले दिन अख़बारों के पहले पन्ने पर यह घटना टॉप बॉक्स लगी। और फिर वही हुआ जो मैं नहीं चाहता था । मीडिया अफ़वाह फैलाने वालों में शामिल हो गई। राजस्थान से निकला चोटी चोर हरियाणा , दिल्ली होते हुए पूरे उत्तर भारत में फैल गया। चोटी काटने वाली की शक में एक बुज़ुर्ग मारी गईं।
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अब ज़रा पंद्रह साल पीछे चलिए। साल 2002-03 में कई राज्यों में ख़ौफ़ का पर्याय रहा मुँहनोचवा आज तक पकड़ा नहीं जा सका, अब चोटी कटवा पैदा हो गया। १५ साल पहले मुँह नोचवा का ख़ौफ़ इस तरह था कि गाँव में शाम ढलते ही लोग घरों में दुबक ( हालाँकि ये सब पत्रकारों की नज़र में था) जाते थे। लोग छतों पर सोना छोड़ दिए। लेकिन हम लोग कभी अंदर कमरे में नहीं सोये। मुँह नोचवा की आड़ में लोग अपनी दुश्मनी भी निकालने लगे। प्रेमियों की तो मानो आफ़त आ गई। दूसरे मोहल्ले जाना गुनाह हो गया । कई तो मुँह नोचवा के शक में पीटे गए । साधू, भिखारी, ख़ानाबदोश सब में लोगों को मुँह नोचवा नज़र आने लगा । मीडिया ने इसे कवर करना छोड़ दिया तो मुँह नोचवा भी ग़ायब हो गया । लेकिन पकड़ा नहीं जा सका। इसी तरह दिल्ली वाला काला बंदर और प्याज़ माँगने वाली बुढ़िया को भी न मीडिया खोज पाई न ही पुलिस। अब चोटी कटवा की बारी है। मुँह नोचवा हो या प्याज़ माँगने वाली बुढ़िया या फिर काला बंदर। ये सब सिर्फ़ उन्हीं लोगों को दिखे जो एक ख़ास सामाजिक पृष्ठ भूमि से थे। लगभग एक समान आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र से संबंधित ऐसे लोग मास हिस्टीरिया का शिकार हैं । और बुरा न मानिये इस बीमारी का थोड़ा सा प्रभाव हमारी मीडिया पर भी गया है ।
http://madheshiaa.blogspot.in/2017/08/blog-post_4.html
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अब ज़रा पंद्रह साल पीछे चलिए। साल 2002-03 में कई राज्यों में ख़ौफ़ का पर्याय रहा मुँहनोचवा आज तक पकड़ा नहीं जा सका, अब चोटी कटवा पैदा हो गया। १५ साल पहले मुँह नोचवा का ख़ौफ़ इस तरह था कि गाँव में शाम ढलते ही लोग घरों में दुबक ( हालाँकि ये सब पत्रकारों की नज़र में था) जाते थे। लोग छतों पर सोना छोड़ दिए। लेकिन हम लोग कभी अंदर कमरे में नहीं सोये। मुँह नोचवा की आड़ में लोग अपनी दुश्मनी भी निकालने लगे। प्रेमियों की तो मानो आफ़त आ गई। दूसरे मोहल्ले जाना गुनाह हो गया । कई तो मुँह नोचवा के शक में पीटे गए । साधू, भिखारी, ख़ानाबदोश सब में लोगों को मुँह नोचवा नज़र आने लगा । मीडिया ने इसे कवर करना छोड़ दिया तो मुँह नोचवा भी ग़ायब हो गया । लेकिन पकड़ा नहीं जा सका। इसी तरह दिल्ली वाला काला बंदर और प्याज़ माँगने वाली बुढ़िया को भी न मीडिया खोज पाई न ही पुलिस। अब चोटी कटवा की बारी है। मुँह नोचवा हो या प्याज़ माँगने वाली बुढ़िया या फिर काला बंदर। ये सब सिर्फ़ उन्हीं लोगों को दिखे जो एक ख़ास सामाजिक पृष्ठ भूमि से थे। लगभग एक समान आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र से संबंधित ऐसे लोग मास हिस्टीरिया का शिकार हैं । और बुरा न मानिये इस बीमारी का थोड़ा सा प्रभाव हमारी मीडिया पर भी गया है ।
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